अनमोल विचार और कथन
301: धनवान व्यक्ति का सारा संसार सम्मान करता है।
302: धनविहीन महान राजा का संसार सम्मान नहीं करता।
303: दरिद्र मनुष्य का जीवन मृत्यु के समान है।
304: धनवान असुंदर व्यक्ति भी सुरुपवान कहलाता है।
305: याचक कंजूस-से-कंजूस धनवान को भी नहीं छोड़ते।
306: उपार्जित धन का त्याग ही उसकी रक्षा है। अर्थात उपार्जित धन
को लोक हित के कार्यों में खर्च करके सुरक्षित कर लेना चाहिए।
307: अकुलीन धनिक भी कुलीन से श्रेष्ठ है।
308: नीच व्यक्ति को अपमान का भय नहीं होता।
309: कुशल लोगों को रोजगार का भय नहीं होता।
310: जितेन्द्रिय व्यक्ति को विषय-वासनाओं का भय नहीं सताता।
311: कर्म करने वाले को मृत्यु का भय नहीं सताता।
312: साधू पुरुष किसी के भी धन को अपना ही मानते है।
313: दूसरे के धन अथवा वैभव का लालच नहीं करना चाहिए।
314: मृत व्यक्ति का औषधि से क्या प्रयोजन।
315: दूसरे के धन का लोभ नाश का कारण होता है।
316: दूसरे का धन किंचिद् भी नहीं चुराना चाहिए।
317: दूसरों के धन का अपहरण करने से स्वयं अपने ही धन का नाश हो जाता है।
318: चोर कर्म से बढ़कर कष्टदायक मृत्यु पाश भी नहीं है।
319: जीवन के लिए सत्तू (जौ का भुना हुआ आटा) भी काफी होता है।
320: हर पल अपने प्रभुत्व को बनाए रखना ही कर्त्यव है।
321: नीच की विधाएँ पाप कर्मों का ही आयोजन करती है।
322: निकम्मे अथवा आलसी व्यक्ति को भूख का कष्ट झेलना पड़ता है।
323: भूखा व्यक्ति अखाद्य को भी खा जाता है।
324: इंद्रियों के अत्यधिक प्रयोग से बुढ़ापा आना शुरू हो जाता है।
325: संपन्न और दयालु स्वामी की ही नौकरी करनी चाहिए।
326: लोभी और कंजूस स्वामी से कुछ पाना जुगनू से आग प्राप्त करने के समान है।
327: विशेषज्ञ व्यक्ति को स्वामी का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
328: उचित समय पर सम्भोग (sex) सुख न मिलने से स्त्री बूढी हो जाती है।
329: नीच और उत्तम कुल के बीच में विवाह संबंध नहीं होने चाहिए।
330: न जाने योग्य जगहों पर जाने से आयु, यश और पुण्य क्षीण हो जाते है।
331: अधिक मैथुन (सेक्स) से पुरुष बूढ़ा हो जाता है।
332: अहंकार से बड़ा मनुष्य का कोई शत्रु नहीं।
333: सभा के मध्य शत्रु पर क्रोध न करें।
334: शत्रु की बुरी आदतों को सुनकर कानों को सुख मिलता है।
335: धनहीन की बुद्धि दिखाई नहीं देती।
336: निर्धन व्यक्ति की हितकारी बातों को भी कोई नहीं सुनता।
337: निर्धन व्यक्ति की पत्नी भी उसकी बात नहीं मानती।
338: पुष्पहीन होने पर सदा साथ रहने वाला भौरा वृक्ष को त्याग देता है।
339: विद्या से विद्वान की ख्याति होती है।
340: यश शरीर को नष्ट नहीं करता।
341: जो दूसरों की भलाई के लिए समर्पित है, वही सच्चा पुरुष है।
342: शास्त्रों के ज्ञान से इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है।
343: गलत कार्यों में लगने वाले व्यक्ति को शास्त्रज्ञान ही रोक पाते है।
344: नीच व्यक्ति की शिक्षा की अवहेलना करनी चाहिए।
345: मलेच्छ अर्थात नीच की भाषा कभी शिक्षा नहीं देती।
346: मलेच्छ अर्थात नीच व्यक्ति की भी यदि कोई अच्छी बात हो अपना लेना चाहिए।
347: गुणों से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
348: विष में यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।
349: विशेष स्थिति में ही पुरुष सम्मान पाता है।
350: सदैव आर्यों (श्रेष्ठ जन) के समान ही आचरण करना चाहिए।
351: मर्यादा का कभी उल्लंघन न करें।
352: विद्वान और प्रबुद्ध व्यक्ति समाज के रत्न है।
353: स्त्री रत्न से बढ़कर कोई दूसरा रत्न नहीं है।
354: रत्नों की प्राप्ति बहुत कठिन है। अर्थात श्रेष्ठ नर और नारियों की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है।
355: शास्त्र का ज्ञान आलसी को नहीं हो सकता।
356: स्त्री के प्रति आसक्त रहने वाले पुरुष को न स्वर्ग मिलता है, न धर्म-कर्म।
357: स्त्री भी नपुंसक व्यक्ति का अपमान कर देती है।
358: फूलों की इच्छा रखने वाला सूखे पेड़ को नहीं सींचता।
359: बिना प्रयत्न किए धन प्राप्ति की इच्छा करना बालू में से तेल निकालने के समान है।
360: महान व्यक्तियों का उपहास नहीं करना चाहिए।
361: कार्य के लक्षण ही सफलता-असफलता के संकेत दे देते है।
362: नक्षत्रों द्वारा भी किसी कार्य के होने, न होने का पता चल जाता है।
363: अपने कार्य की शीघ्र सिद्धि चाहने वाला व्यक्ति नक्षत्रों की परीक्षा नहीं करता।
364: परिचय हो जाने के बाद दोष नहीं छिपाते।
Quote 365: स्वयं अशुद्ध व्यक्ति दूसरे से भी अशुद्धता की शंका करता है।
366: अपराध के अनुरूप ही दंड दें।
367: कथन के अनुसार ही उत्तर दें।
368: वैभव के अनुरूप ही आभूषण और वस्त्र धारण करें।
369: अपने कुल अर्थात वंश के अनुसार ही व्यवहार करें।
370: कार्य के अनुरूप प्रयत्न करें।
371: पात्र के अनुरूप दान दें।
372: उम्र के अनुरूप ही वेश धारण करें।
373: सेवक को स्वामी के अनुकूल कार्य करने चाहिए।
374: पति के वश में रहने वाली पत्नी ही व्यवहार के अनुकूल होती है।
375: शिष्य को गुरु के वश में होकर कार्य करना चाहिए।
376: पुत्र को पिता के अनुकूल आचरण करना चाहिए।
377: अत्यधिक आदर-सत्कार से शंका उत्पन्न हो जाती है।
378: स्वामी के क्रोधित होने पर स्वामी के अनुरूप ही काम करें।
379: माता द्वारा प्रताड़ित बालक माता के पास जाकर ही रोता है।
380: स्नेह करने वालों का रोष अल्प समय के लिए होता है।
381: मुर्ख व्यक्ति को अपने दोष दिखाई नहीं देते, उसे दूसरे के दोष ही दिखाई देते हैं।
382: स्वार्थ पूर्ति हेतु दी जाने वाली भेंट ही उनकी सेवा है।
383: बहुत दिनों से परिचित व्यक्ति की अत्यधिक सेवा शंका उत्पन्न करती है।
384: अति आसक्ति दोष उत्पन्न करती है।
385: शांत व्यक्ति सबको अपना बना लेता है।
386: बुरे व्यक्ति पर क्रोध करने से पूर्व अपने आप पर ही क्रोध करना चाहिए।
387: बुद्धिमान व्यक्ति को मुर्ख, मित्र, गुरु और अपने प्रियजनों से विवाद नहीं करना चाहिए।
388: ऐश्वर्य पैशाचिकता से अलग नहीं होता।
389: स्त्री में गंभीरता न होकर चंचलता होती है।
390: धनिक को शुभ कर्म करने में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता।
391: वाहनों पर यात्रा करने वाले पैदल चलने का कष्ट नहीं करते।
392: जो व्यक्ति जिस कार्य में कुशल हो, उसे उसी कार्य में लगाना चाहिए।
393: स्त्री का निरिक्षण करने में आलस्य न करें।
394: स्त्री पर जरा भी विश्वास न करें।
395: स्त्री बिना लोहे की बड़ी है।
396: सौंदर्य अलंकारों अर्थात आभूषणों से छिप जाता है।
397: गुरुजनों की माता का स्थान सर्वोच्च होता है।
398: प्रत्येक अवस्था में सर्वप्रथम माता का भरण-पोषण करना चाहिए।
399: स्त्री का आभूषण लज्जा है।
400: ब्राह्मणों का आभूषण वेद है।
401: सभी व्यक्तियों का आभूषण धर्म है।
402: विनय से युक्त विद्या सभी आभूषणों की आभूषण है।
403: शांतिपूर्ण देश में ही रहें।
404: जहां सज्जन रहते हों, वहीं बसें।
405: राजाज्ञा से सदैव डरते रहे।
406: राजा से बड़ा कोई देवता नहीं।
407: राज अग्नि दूर तक जला देती है।
408: राजा के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए।
409: गुरु और देवता के पास भी खाली नहीं जाना चाहिए।
410: राजपरिवार से द्वेष अथवा भेदभाव नहीं रखना चाहिए।
411: राजकुल में सदैव आते-जाते रहना चाहिए।
412: राजपुरुषों से संबंध बनाए रखें।
413: राजदासी से कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए।
414: राजधन की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना चाहिए।
415: पुत्र के गुणवान होने से परिवार स्वर्ग बन जाता है।
416: पुत्र को सभी विद्याओं में क्रियाशील बनाना चाहिए।
417: जनपद के लिए ग्राम का त्याग कर देना चाहिए।
418: ग्राम के लिए कुटुम्ब (परिवार) को त्याग देना चाहिए।
419: पुत्र प्राप्ति सर्वश्रेष्ठ लाभ है।
420: प्रायः पुत्र पिता का ही अनुगमन करता है।
421: गुणी पुत्र माता-पिता की दुर्गति नहीं होने देता।
422: पुत्र से ही कुल को यश मिलता है।
423: जिससे कुल का गौरव बढे वही पुरुष है।
424: पुत्र के बिना स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती।
425: संतान को जन्म देने वाली स्त्री पत्नी कहलाती है।
426: एक ही गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं का निकट संपर्क ब्रह्मचर्य को नष्ट कर सकता है।
427: पुत्र प्राप्ति के लिए ही स्त्री का वरण किया जाता है।
428: पराए खेत में बीज न डाले। अर्थात पराई स्त्री से सम्भोग (सेक्स) न करें।
429: अपनी दासी को ग्रहण करना स्वयं को दास बना लेना है।
430: विनाश काल आने पर दवा की बात कोई नहीं सुनता।
431: देहधारी को सुख-दुःख की कोई कमी नहीं रहती।
432: गाय के पीछे चलते बछड़े के समान सुख-दुःख भी आदमी के साथ जीवन भर चलते है।
433: सज्जन तिल बराबर उपकार को भी पर्वत के समान बड़ा मानकर चलता है।
434: दुष्ट व्यक्ति पर उपकार नहीं करना चाहिए।
435: उपकार का बदला चुकाने के भय से दुष्ट व्यक्ति शत्रु बन जाता है।
436: सज्जन थोड़े-से उपकार के बदले बड़ा उपकार करने की इच्छा से सोता भी नहीं।
437: देवता का कभी अपमान न करें।
438: आंखों के समान कोई ज्योति नहीं।
439: आंखें ही देहधारियों की नेता है।
440: आँखों के बिना शरीर क्या है?
441: जल में मूत्र त्याग न करें।
442: नग्न होकर जल में प्रवेश न करें।
443: जैसा शरीर होता है वैसा ही ज्ञान होता है।
444: जैसी बुद्धि होती है , वैसा ही वैभव होता है।
445: स्त्री के बंधन से मोक्ष पाना अति दुर्लभ है।
445: सभी अशुभों का क्षेत्र स्त्री है।
446: स्त्रियों का मन क्षणिक रूप से स्थिर होता है।
447: तपस्वियों को सदैव पूजा करने योग्य मानना चाहिए।
448: पराई स्त्री के पास नहीं जाना चाहिए।
449: अन्न दान करने से भ्रूण हत्या (गर्भपात) के पाप से मुक्ति मिल जाती है।
450: वेद से बाहर कोई धर्म नहीं है।
451: धर्म का विरोध कभी न करें।
452: सत वाणी से स्वर्ग प्राप्त होता है।
453: सत्य से बढ़कर कोई तप नहीं।
454: सत्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
455: सत्य पर संसार टिका हुआ है।
456: सत्य पर ही देवताओं का आशीर्वाद बरसता है।
457: गुरुओं की आलोचना न करें।
458: दुष्टता नहीं अपनानी चाहिए।
459: झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं।
460: दुष्ट व्यक्ति का कोई मित्र नहीं होता।
461: संसार में निर्धन व्यक्ति का आना उसे दुखी करता है।
462: दानवीर ही सबसे बड़ा वीर है।
463: गुरु, देवता और ब्राह्मण में भक्ति ही भूषण है।
464: विनय सबका आभूषण है।
465: जो कुलीन न होकर भी विनीत है, वह श्रेष्ठ कुलीनों से भी बढ़कर है।
466: याचकों का अपमान अथवा उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
467: मधुर व प्रिय वचन होने पर भी अहितकर वचन नहीं बोलने चाहिए।
468: बहुमत का विरोध करने वाले एक व्यक्ति का अनुगमन नहीं करना चाहिए।
469: दुर्जन व्यक्ति के साथ अपने भाग्य को नहीं जोड़ना चाहिए।
470: सदाचार से मनुष्य का यश और आयु दोनों बढ़ती है।
471: अपने व्यवसाय में सफल नीच व्यक्ति को भी साझीदार नहीं बनाना चाहिए।
472: पुरुष के लिए कल्याण का मार्ग अपनाना ही उसके लिए जीवन-शक्ति है।
473: कठिन कार्य करवा लेने के उपरान्त भी नीच व्यक्ति कार्य करवाने वाले का अपमान ही करता है।
474: कृतघ्न अर्थात उपकार न मानने वाले व्यक्ति को नरक ही प्राप्त होता है।
475: उन्नति और अवनति वाणी के अधीन है।
476: अपने धर्म के लिए ही कोई सत्पुरुष कहलाता है।
477: स्तुति करने से देवता भी प्रसन्न हो जाते है।
478: झूठे अथवा दुर्वचन लम्बे समय तक स्मरण रहते है।
479: जिन वचनो से राजा के प्रति द्वेष उत्पन्न होता हो, ऐसे बोल नहीं बोलने चाहिए।
480: कोयल की कुक सबको अच्छी है।
481: प्रिय वचन बोलने वाले का कोई शत्रु नहीं होता।
482: जो मांगता है, उसका कोई गौरव नहीं होता।
483: सौभाग्य ही स्त्री का आभूषण है।
484: शत्रु की जीविका भी नष्ट नहीं करनी चाहिए।
485: बहुत पुराना नीम का पेड़ होने पर भी उससे सरौता नहीं बन सकता।
486: एरण्ड वृक्ष का सहारा लेकर हाथी को अप्रसन्न न करें।
487: पुराना होने पर भी शाल के वृक्ष से हाथी को नहीं बाँधा जा सकता।
488: बहुत बड़ा कनेर का वृक्ष भी मूसली बनाने के काम नहीं आता।
489: जुगनू कितना भी चमकीला हो, पर उससे आग का काम नहीं लिया जा सकता।
490: समृद्धता से कोई गुणवान नहीं हो जाता।
491: बिना प्रयत्न के जहां जल उपलब्ध हो, वही कृषि करनी चाहिए।
492: जैसा बीज होता है, वैसा ही फल होता है।
493: जैसी शिक्षा, वैसी बुद्धि।
494: जैसा कुल, वैसा आचरण।
495: शुद्ध किया हुआ नीम भी आम नहीं बन सकता।
496: जो सुख मिला है, उसे न छोड़े।
497: मनुष्य स्वयं ही दुःखों को बुलाता है।
498: लोक व्यवहार शास्त्रों के अनुकूल होना चाहिए।
499: रात्रि में नहीं घूमना चाहिए।
500: आधी रात तक जागते नहीं रहना चाहिए।
501: बिना अधिकार के किसी के घर में प्रवेश न करें।
502: पराए धन को छीनना अपराध है।
503: किसी कार्यारंभ के समय को विद्वान और अनुभवी लोगों से पूछना चाहिए।
504: अकारण किसी के घर में प्रवेश न करें।
505: संसार में लोग जान-बूझकर अपराध की ओर प्रवर्त्त होते हैं।
506: शास्त्रों के न जानने पर श्रेष्ठ पुरुषों के आचरणों के अनुसार आचरण करें।
507: शास्त्र शिष्टाचार से बड़ा नहीं है।
508: राजा अपने गुप्तचरों द्वारा अपने राज्य में होने वाली दूर की घटनाओ को भी जान लेता है।
509: साधारण पुरुष परम्परा का अनुसरण करते है।
510: जिसके द्वारा जीवनयापन होता है, उसकी निंदा न करें।
511: इन्द्रियों को वश में करना ही तप का सार है।
512: स्त्री के बंधन से छूटना अथवा मोक्ष पाना अत्यंत कठिन है।
513: स्त्री का नाम सभी अशुभ क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है।
514: अशुभ कार्य न चाहने वाले स्त्रियों में आसक्त नहीं होते।
515: तीन वेदों ऋग, यजु व साम को जानने वाला ही यज्ञ के फल को जानता है।
516: स्वर्ग की प्राप्ति शाश्वत अर्थात सनातन नहीं होती।
517: जब तक पुण्य फलों का अंश शेष रहता है, तभी तक स्वर्ग का सुख भोग जा सकता है।
518: स्वर्ग-पतन से बड़ा कोई दुःख नहीं है।
519: प्राणी अपनी देह को त्यागकर इंद्र का पद भी प्राप्त करना नहीं चाहता।
520: समस्त दुखों को नष्ट करने की औषधि मोक्ष है।
521: दुर्वचनों से कुल का नाश हो जाता है।
522: पुत्र के सुख से बढ़कर कोई दूसरा सुख नहीं है।
523: विवाद के समय धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिए।
524: प्रातःकाल ही दिन-भर के कार्यों के बारें में विचार कर लें।
525: विनाशकाल आने पर आदमी अनीति करने लगता है।
525: दान जैसा कोई वशीकरण मन्त्र नहीं है।
526: पराई वस्तु को पाने की लालसा नहीं रखनी चाहिए।
527: दुर्जन व्यक्तियों द्वारा संगृहीत सम्पति का उपभोग दुर्जन ही करते है।
528: नीम का फल कौए ही खाते है।
529: समुद्र के पानी से प्यास नहीं बुझती।
530: जिस प्रकार बालू अपने रूखे स्वभाव नहीं छोड़ सकता, उसी प्रकार दुष्ट भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ पाता।
531: सज्जन दुर्जनों में विचरण नही करते।
532: हंस पक्षी श्मशान में नहीं रहता। अर्थात ज्ञानी व्यक्ति मुर्ख और दुष्ट व्यक्तियों के पास बैठना पसंद नहीं करते।
533: समस्त संसार धन के पीछे लगा है।
534: यह संसार आशा के सहारे बंधा है।
535: केवल आशा के सहारे ही लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती।
536: आशा के साथ धैर्य नहीं होता।
537: निर्धन होकर जीने से तो मर जाना अच्छा है।
538: आशा लज्जा को दूर कर देती है अर्थात मनुष्य को निर्लज्ज बना देती है।
539: आत्मस्तुति अर्थात अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से नहीं करनी चाहिए।
540: दिन में स्वप्न नहीं देखने चाहिए।
541: दिन में सोने से आयु कम होती है।
542: धन के नशे में अंधा व्यक्ति हितकारी बातें नहीं सुनता और न अपने निकट किसी को देखता है।
543: श्रेष्ठ स्त्री के लिए पति ही परमेश्वर है।
544: पति का अनुगमन करना, इहलोक और परलोक दोनों का सुख प्राप्त करना है।
545: घर आए अतिथि का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए।
546: नित्य दूसरे को समभागी बनाए।
547: दिया गया दान कभी नष्ट नहीं होता।
548: लोभ द्वारा शत्रु को भी भ्रष्ट किया जा सकता है।
549: मृगतृष्णा जल के समान है।
550: विनयरहित व्यक्ति की ताना देना व्यर्थ है।
551: बुद्धिहीन व्यक्ति निकृष्ट साहित्य के प्रति मोहित होते है।
552: सत्संग से स्वर्ग में रहने का सुख मिलता है।
553: श्रेष्ठ व्यक्ति अपने समान ही दूसरों को मानता है।
554: रूप के अनुसार ही गुण होते है।
555: जहां सुख से रहा जा सके, वही स्थान श्रेष्ठ है।
556: विश्वासघाती की कहीं भी मुक्ति नहीं होती।
557: दैव (भाग्य) के अधीन किसी बात पर विचार न करें।
558: श्रेष्ठ और सुहृदय जन अपने आश्रित के दुःख को अपना ही दुःख समझते है।
559: नीच व्यक्ति ह्र्दयगत बात को छिपाकर कुछ और ही बात कहता है।
560: बुद्धिहीन व्यक्ति पिशाच अर्थात दुष्ट के सिवाय कुछ नहीं है।
561: असहाय पथिक बनकर मार्ग में न जाएं।
562: पुत्र की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
563: सेवकों को अपने स्वामी का गुणगान करना चाहिए।
564: धार्मिक अनुष्ठानों में स्वामी को ही श्रेय देना चाहिए।
565: राजा की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे।
566: अपनी सेवा से स्वामी की कृपा पाना सेवकों का धर्म है।
567: जैसी आज्ञा हो वैसा ही करें।
568: विशेष कार्य को (बिना आज्ञा भी) करें।
569: राजसेवा में डरपोक और निकम्मे लोगों का कोई उपयोग नहीं होता।
570: नीच लोगों की कृपा पर निर्भर होना व्यर्थ है।
571: बुद्धिमानों के शत्रु नहीं होते।
573: शत्रु की निंदा सभा के मध्य नहीं करनी चाहिए।
574: क्षमाशील व्यक्ति का तप बढ़ता रहता है।
575: बल प्रयोग के स्थान पर क्षमा करना अधिक प्रशंसनीय होता है।
576: क्षमा करने वाला अपने सारे काम आसानी से कर लेता है।
577: साहसी लोगों को अपना कर्तव्य प्रिय होता है।
578: दोपहर बाद के कार्य को सुबह ही कर लें।
579: धर्म को व्यावहारिक होना चाहिए।
580: लोक चरित्र को समझना सर्वज्ञता कहलाती है।
581: तत्त्वों का ज्ञान ही शास्त्र का प्रयोजन है।
582: कर्म करने से ही तत्त्वज्ञान को समझा जा सकता है।
583: धर्म से भी बड़ा व्यवहार है।
584: आत्मा व्यवहार की साक्षी है।
585: आत्मा तो सभी की साक्षी है।
586: कूट साक्षी नहीं होना चाहिए।
587: झूठी गवाही देने वाला नरक में जाता है।
588: पक्ष अथवा विपक्ष में साक्षी देने वाला न तो किसी का भला करता है, न बुरा।
589: व्यक्ति के मन में क्या है, यह उसके व्यवहार से प्रकट हो जाता है।
590: पापी की आत्मा उसके पापों को प्रकट कर देती है।
591: प्रजाप्रिय राजा लोक-परलोक का सुख प्रकट करता है।
592: मनुष्य के चेहरे पर आए भावों को देवता भी छिपाने में अशक्त होते है।
593: चोर और राजकर्मचारियों से धन की रक्षा करनी चाहिए।
595: राजा के दर्शन न देने से प्रजा नष्ट हो जाती है।
596: राजा के दर्शन देने से प्रजा सुखी होती है।
597: अहिंसा धर्म का लक्षण है।
598: संसार की प्रत्येक वास्तु नाशवान है।
599: भले लोग दूसरों के शरीर को भी अपना ही शरीर मानते है।
600: मांस खाना सभी के लिए अनुचित है।
601: ज्ञानी पुरुषों को संसार का भय नहीं होता।
Quote 602: कीड़ों तथा मलमूत्र का घर यह शरीर पुण्य और पाप को भी जन्म देता है।
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